बिना हाथ पैर के जीवन में सफलता पाने वाला व्यक्ति- निकोलस वुजिसिक

निकोलस वुजिसिक का जन्म 1982 को मेलबोर्न, ऑस्ट्रेलिया में हुआ, उनका जन्म ही बिना हाथ और पैरो के हुआ था। बावजूद इसके उन्होंने जीवन में कभी हार नहीं मानी। हाथ-पैरो के बिना प्रारंभिक जीवन बिताना उनके लिये काफी मुश्किल था। बचपन से ही उन्हें काफी शारीरिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। लेकिन अपने जीवट और जज्बे के दम पर उन्होंने इस विकार से हार नही मानी, और हमेशा वे औरो की तरह जिन्दगी को जीने की कोशिश करते रहे।


हालांकि हताशा और निराशा ने उनका मनोबल तोड़ने की भी कोशिश की पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। निराश होकर निक ने खुदकुशी की भी सोची। 10 साल की उम्र में उन्होंने खुद को बाथ टब में डुबोने की कोशिश की, लेकिन किस्मत से बच गए। निक का कहना है कि मुझे उस वक्त लगता था कि मेरी जिंदगी बेमकसद है। जब मकसद और ताकत नहीं होती तो टिके रहना काफी मुश्किल होता है। लेकिन मां के लिखे एक लेटर ने उनकी सोच पूरी तरह बदल दी। उनकी मां का यह लेख एक अखबार में छपा था जो एक विकलांग शख्स की अपनी विकलांगता पर जीत की कहानी थी। 

निक उस वक्त करीब 13 साल के थे। उन्हें समझ आ गया कि दुनिया में विकलांगता से संघर्ष करने वाले वह अकेले इंसान नहीं हैं। वे बताते हैं कि मुझे महसूस हुआ कि भगवान ने मुझे ऐसा दूसरों को उम्मीदें देने के लिए बनाया है। इस सोच से मुझे प्रेरणा मिली। फिर मैंने दूसरे लोगों का हौसला बढ़ाने और उनकी जिंदगी में रोशनी भरने को अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया। इसके बाद मैंने तय किया कि जो नहीं है उसे लेकर नाराज होने के बजाय मेरे पास जो कुछ है, मैं उसके लिए भगवान का शुक्रगुजार रहूंगा। 

वैसे, पैरंट्स की बदौलत ही वह फाइटर बन सके। पिता कंप्यूटर प्रोग्रामर और अकाउंटंट थे। 18 महीने की उम्र में वह निक को पानी में छोड़ देते थे ताकि वह तैरना सीख सकें। उन्होंने निक को पंजे की मदद से टाइप करना सिखाया। निक उस वक्त करीब 6 साल के थे। मां ने प्लास्टिक का एक स्पेशल डिवाइस बनाया, जिसकी मदद से निक को पेन और पेंसिल पकड़ना सिखाया। दिक्कतों के बावजूद पैरंट्स ने तय किया कि उन्हें स्पेशल स्कूल नहीं भेजना है। नॉर्मल बच्चों के साथ पढ़ाने का उनका फैसला मुश्किलों भरा था, क्योंकि स्कूल में बच्चे बुलिंग करते थे। लेकिन यह दांव आगे जाकर सही साबित हुआ। उन्होंने आम बच्चों की तरह काम करना शुरू किया। उन्होंने फुटबॉल और गोल्फ खेलना सीखा। धीरे-धीरे स्वीमिंग और सर्फिंग भी सीख ली। पंजे की मदद से वह शरीर को बैलेंस करते हैं और यही पंजा किक लगाने में मदद करता है। इसी छोटे-से पंजे से वह लिखते और टाइप भी करते हैं। 

17 साल की उम्र में उन्होंने प्रेयर ग्रुप्स में जाकर लेक्चर देना शुरू किया। 21 साल की उम्र में उन्होंने अकाउंटिंग और फाइनैंस में ग्रैजुएशन कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक मोटिवेशनल स्पीकर के तौर पर अपने करियर की शुरूआत की। निक ने ‘एटिट्यूड इज एटिट्यूड’ नाम से कंपनी बनाई। उन्होंने ‘लाइफ विदआउट लिंब्स’ नामक एनजीओ भी बनाया। धीरे-धीरे उन्हें दुनिया में ऐसे मोटिवेशन स्पीकर के तौर पर जाना जाने लगा, उनका स्वयं का जीवन चमत्कारिक है। निक 2007 में लॉस ऐंजिलिस में बस गए। उन्हें केनिया मियाहरा के रूप में एक सच्ची जीवनसाथी मिल गई हैं। निक को कभी नहीं लगता था कि शारीरिक कमी की वजह से उन्हें ऐसी कोई लड़की मिलेगी, जो जिंदगी भर उनके साथ रहना चाहेगी। 
निक बेहद पॉजिटिव सोच वाले शख्स हैं और खुशी और शांति को सबसे ज्यादा अहमियत देते हैं। आज वे पूरी दुनिया को जिंदगी जीने का तरीका सिखा रहे हैं। निक ने दुनिया के 44 से ज्यादा देशों की यात्रा की है और वहां जाकर लोगों को सही तरीके से जिंदगी जीने की सीख दी है। वह कहते हैं कि मैं लोगों से खुद से प्यार करने के लिए कहता हूं और गिर कर उठने के लिए प्रेरित करता रहता हूं। अगर मैंने जिंदगी में एक भी शख्स को प्रेरित कर दिया तो मेरी जिंदगी का मकसद पूरा हो गया
निक को हमेशा आश्चर्य होता था की वे दुसरो से अलग क्यू है. वे बार-बार अपने जीवन के मकसद को लेकर प्रश्न पूछा करते थे और उनका कोई उद्देश्य है या नही ये प्रश्न भी अक्सर उन्हें परेशान करता था।

निक अपनी ताकत और उनकी उपलब्धियों का पूरा श्रेय भगवान पर बने उनके अटूट विश्वास को देते हैं। उन्होंने कहते हैं कि अब तक के जीवन में जिनसे भी मिले फिर चाहे वह दोस्त हो, रिश्तेदार हो या सहकर्मी हो, उन सभी ने उन्हें काफी प्रेरित किया।

विश्व भर में आज निक के करोडो फैन है, जो उन्हें देखकर निरंतर प्रेरित होते है। हाथ पैर न होने के बावजूद बहुत से पुरूस्कार जीत चुके है। .निक कहते है, “यदि भगवान किसी बिना हाथ और पैर वाले इंसान का उपयोग अपने हात और पैर समझकर करते है, तो वे किसी के भी दिल का उपयोग कर सकते है.”

जब कभी हमारी जिन्दगी में समस्याएँ या मुश्किलें आतीं हैं, तो हम में से ज्यादातर लोग सोचतें हैं कि ऐसा मेरे साथ ही क्यों हो रहा है? यही सोच धीरे-धीरे हमारे अन्दर घोर निराशा पैदा करके हमारी जिन्दगी को एक बोझ बना सकती है। ऐसे में जरूरत होती है हम स्वयं पर भरोसा रखने और अपनी पूरी शक्ति के साथ मुकाबला करने की और ऐसा तब तक करतें रहें जब तक हम उन पर विजय हासिल ना कर लें। आप की सोच भले ही इसे असंभव माने, पर आपका विश्वास आपको मंजिल तक आवश्क पहुँचाएगा। 

1 comment:

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