रिक्शा चालक की बेटी ने फहराया सफलता का परचम

वह न तो मुकदर की सिकंदर है न ही तकदीर की बेताज बादशाह, उसे बस अपने संघर्ष और अपनी लगन पर विश्वास था, उसे बस हर हाल में कामयाबी चाहिए। फिर चाहें कितनी भी मुसीबतें आ जाए, उसे तो हर हाल में जीत चाहिए। ‘जीत’ से कम पर उसने कभी समझौता नहीं करना सीखा। हम बात कर रहे हैं ‘ स्वप्ना बर्मन ’जिन्होंने हेप्टाथलन में भारत को पहला गोल्ड दिला कर इतिहास रच दिया।


स्वप्ना उन लोगों में जिनके समक्ष संसाधनों की विहीनता जैसे शब्द कुछ भी मायने नहीं रखते। आप को बता दे कि स्वप्ना के पिता पंचन बर्मन रिक्शा चलाते हैं, इतना ही नहीं बीते कुछ समय से बीमारी के कारण बिस्तर पर रहते हैं। आर्थिक कठिनाईयां समय-समय को स्वप्ना बर्मन को चुनौती दी पर स्वप्ना उन लोगों में से थी जिन्होंने कभी हार मानना नहीं सीखा।
ऐसा भी समय था कि जब स्वप्ना के पास अच्छे ढ़ंग के जूते भी नहीं थे। उनके दोनों पैरों में छह उंगलियां हैं और पांव की ज्यादा चैड़ाई खेलों में उसकी लैंडिंग को मुश्किल बना देती है। इस कारण से उनके जूते शीघ्र फट भी जाते थे। खेल के उपकरण खरीदने में उन्हें न जाने कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ा। इन विषम परिस्थितियों ने अपनी सफलता की पटकथा लिखी। उसने एक सपना देखा तो एक ऐसा सपना जिसे उसे पूरा करना है फिर परिस्थितियां कैसे भी हो उसे उससे कोई मतलब नहीं रहता। 
स्वप्ना का स्वर्ण पदक हम सभी के एक प्ररेणा स्रोत है। यदि हम भी अपने में जीत की उत्कंठा और जुनून लाए तो फिर कोई भी हमे रोक नहीं सकता। आप की सफलता आपके हाथ में बस आपको स्वयं में स्वप्ना वाला जुनून पैदा करना पड़ेगा।

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